'हिन्दुस्तानी प्रचार सभा' द्वारा दिनांक 9-3-2019 को हिन्दी कथा साहित्य के विविध आयाम विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कथा साहित्य के स्वरूप और वर्तमान संदर्भ में आए बदलाव पर उद्घाटन सत्र में डॉ. सुशीला गुप्ता ने अपना सारगर्भित बीज वक्तव्य दिया।
अध्यक्षता करते हुए सभा के ट्रस्टी व मानद सचिव श्री फ़िरोज़ पैच ने जीवन में कहानियों के महत्त्व को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि आज कथा जगत् को सामाजिक विसंगतियाँ दूर करने वाले कथा साहित्य की ज़रूरत है। प्ऱोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी ने मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए कहा कि अध्ययन के नाम पर हमें ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने की आवश्यकता है। आज ज़रूरत है अनुभूति और स्मृति को बचाने की, तभी साहित्य जीवित रहेगा।
प्रारम्भ में छाया गांगुली ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत करके संगोष्ठी के लिए अनुकूल वातावरण बनाया। प्रस्तावना प्रस्तुत की श्री संजीव निगम ने। हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के ट्रस्टी व कोषाध्यक्ष श्री अरविन्द डेगवेकर जी ने आभार व्यक्त किया।
प्रथम सत्र में शोध-छात्रों के संदर्भ में ममता कालिया ने कहा कि पढ़ने की संस्कृति नष्ट नहीं हो रही है, बल्कि अलग-अलग रूपों में बढ़ रही है। कथ्य, कथा-साहित्य का प्राण होता है स्मृति के साथ कल्पना का होना भी आवश्यक है। सुधा अरोड़ा ने अपनी धारदार वाणी में स्पष्ट किया कि लेखन व्यवसाय नहीं है, सुखद तो बिलकुल नहीं। लेखन अभिव्यक्ति का माध्यम है, पर इसका समयानुकूल होना आवश्यक है। उन्होंने नारी सशक्तीकरण और दलित विमर्श पर भी अपने विचार व्यक्त किये। इसी सत्र में हिन्दुस्तानी प्रचार सभा द्वारा संचालित सरल हिन्दी कक्षा के विद्यार्थियों द्वारा कथा-कथन 'परदेसी' (ममता कालिया कृत 'परदेसी' कहानी) को प्रस्तुत किया गया।
द्वितीय सत्र में डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय ने भाषा-शिल्प की अनुकूलता पर अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि वर्तमान समस्याएँ प्रेमचंद के ज़माने से कम नहीं है, केवल उनका स्वरूप बदला है। लेखन के धरातल पर विविधता साहित्य में सम्पन्नता तो ला रही है, पर उसका कथ्य घटता जा रहा है और शिल्प ज़बरदस्ती थोपा जा रहा है। साहित्य की पठनीयता पर बोलते हुए सूर्यबाला ने कहा कि लेखक जितना संवेदनशील होता है, उतना ही पाठक भी। पठनीयता आज की सबसे बड़ी चुनौती है। लेखक की ज़िम्मदारी है कि वह पाठक को स्वयं की भाव-भूमि तक ले जाए।
'माटी की सुगंध' पर बोलते हुए डॉ. प्रोफ़ेसर कलानाथ मिश्र ने कहा कि रचना में मौलिकता आवश्यक है, कृत्रिमता से पाठक दूर हो जाते हैं। उन्होंने अनेक उदाहरण देकर यह तथ्य स्थापित किया कि माटी की सुगंध वाली रचनाएँ कालजयी होती हैं।
सुश्री मधु कांकरिया ने आदिवासी जीवन की झाँकी प्रस्तुत की। उन्होंने कहा : आदिवासी अर्थात् पहला मूल निवासी। आदिवासी समाज आदि धर्म का पालन करता है, न कि मन्दिर और मूर्ति पूजा करने में विश्वास। वह प्रकृति का पूजक होता है, स्वयं को धरती का पुत्र मानता है। आदिवासियों में मातृ सत्तात्मक परिवार होते हैं और पराक्रम पूज्य होते हैं और महिलाएँ भी सुरक्षित होती हैं। उनके समाज में शौर्य और पराक्रम पूज्य होते हैं। आदिवासी समाज शहर को बहुत कुछ देता है, पर शहर से लेता कुछ नहीं। सरकारी कार्यक्रम भी आदिवासियों को कुछ नहीं देते। आदिवासी जीवन का उन्होंने स्वयं उनके इल़ाकों में जाकर अध्ययन किया है और उनकी समस्याओं को समझा है। उन्होंने अपने अनुभव और अध्ययन के आधार पर उनकी समस्याओं को रेखांकित करते हुए अपनी कहानियों का उल्लेख किया।
समापन सत्र को खुले मंच का रूप दिया गया। उमेश पाण्डेय, भूमिका कपूर, स्मृति सिंह, त्रिशिला तोंडारे, मनसा मिश्रा, शिवांगी मिश्रा ने प्रश्न पूछे, जिनका माकूल उत्तर देकर मंच पर उपस्थित वक्ताओं ने विद्यार्थियों की शंकाओं का समाधान किया। जनाब सैय्यद अली अब्बास ने काव्यात्मक रीति से आभार प्रदर्शित किया। सभागृह में भारी संख्या में विद्यार्थी, प्राध्यापक और साहित्य-प्रेमी उपस्थित थे।